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कविता

पथ देख बिता दी रैन

महादेवी वर्मा


पथ देख बिता दी रैन
मैं प्रिय पहचानी नहीं !

तम ने धोया नभ-पंथ
सुवासित हिमजल से;
सूने आँगन में दीप
जला दिए झिल-मिल से;
आ प्रात बुझा गया कौन
अपरिचित, जानी नहीं !
मैं प्रिय पहचानी नहीं !

धर कनक-थाल में मेघ
सुनहला पाटल सा,
कर बालारुण का कलश
विहग-रव मंगल सा,
आया प्रिय-पथ से प्रात -
सुनाई कहानी नहीं !
मैं प्रिय पहचानी नहीं !

नव इंद्रधनुष सा चीर
महावर अंजन ले,
अलि-गुंजित मीलित पंकज -
- नूपुर रुनझुन ले,
फिर आई मनाने साँझ
मैं बेसुध मानी नहीं !
मैं प्रिय पहचानी नहीं !

इन श्वासों का इतिहास
आँकते युग बीते;
रोमों में भर भर पुलक
लौटते पल रीते;
यह ढुलक रही है याद
नयन से पानी नहीं !
मैं प्रिय पहचानी नहीं !

अलि कुहरा सा नभ विश्व
मिटे बुद्‌बुद्‌‌-जल सा;
यह दुख का राज्य अनंत
रहेगा निश्चल सा;
हूँ प्रिय की अमर सुहागिनि
पथ की निशानी नहीं !
मैं प्रिय पहचानी नहीं !
 


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